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छठा अध्याय
दिव्य उषा
ऋग्वेद, मण्ड ल 3 सूक्त 61
उछो याजेन वाजिनि प्रचेता: स्तोमं जुषस्य गृणतो मघोनि । पुराणो देवि युषति: पुरंधिरनु वतं चरसि विश्ववारे ।।1।।
( उष:) हे उषा! ( वाजेन वाजिनि) हे सारतत्त्वके भण्डारसे समृद्धि-शालिनि ! ( प्रचेता:) प्रचेता तू, ( गृणत:) जो तुझे अभिव्यक्त करता है उसके ( स्तोमं) स्तोमका, स्तोत्र-वचनका ( जुषस्व) सेवन कर, ( मघोनि) हे विपुलवैभवसपन्ने ! ( देवि) हे देवि ! ( पुराणी युवति:) तू पुरातन होती हुई भी सदा युवती है, (पुरंधि:) तू बहुत विचारोवाली होकर ( व्रतम् अनुचरसि) अपने क्रिया-निनयमका पालन करती हुई चलती है, ( विश्ववारे) हे सब वरोंको धारण करनेवाली ! ।।1।।
उषो देव्यमर्त्या वि भ्राहि चन्द्ररथा सूनृता ईरयन्ती । आ त्वा वहन्तु सुयमासो अश्वा हिरष्यवर्णाः1 पृथुपाजसो ये ।।2।।
( देवि उषः) हे दिव्य उषा ! ( अमर्त्या विभाहि) अमृत हो चमक उठ (चन्द्ररथा) आनंदपूर्ण प्रकाशके अपने रथमें बैठी हुई और (सुनृता: ईरयन्ती) सत्यकी आनंदमयी वाणियोंको प्रेरित करती हुई । (त्वा सुय-मास: अश्वा आवहन्तु) सुनियन्त्रित घोड़े तुझे यहाँ ले आवें, (ये हिरष्य-वर्णा: पृथुपाजस:) जो रंगमें सोने जैसे चभकीले तथा गति व शक्तिमें विशाल और महान् हैं । ।|2|।
उस: प्रतीची भुवनानि विश्वोर्ध्वा तिष्ठस्यमृतस्य केतु: । समानमर्थ चरणीयमाना चक्रमिव नव्यस्या ववृत्स्व ।।3।।
( उषः) हे उषा । तू ( विश्वा भुवनानि प्रतीची) सब लोकोंके सम्मुख होकर (ऊर्ध्वा तिष्ठसि) ऊपर खड़ी होती, है ( अमृतस्य केतु:) और उनके __________ 1. श्रीअरविन्दने यहां इस पदको प्रथमाका बहुवचन माना है और 'अश्वा:'के विशेषणयके रूपमें इसका अर्थ किया है । वेदके पदपाठमें यह 'हिरण्यवर्णाम्' इस प्रकार पठित है, अर्थात् द्वितीयाका एकवचन है और उषा (त्वा) का विशेषण है | पदपाठके अनुसार मन्त्रके स्वर्णोंवद् तुझ उषाको यहाँ ले आवें | अनुवादक ३७७ लिये अमरताका दर्शन है । (समानम् अर्थं चरणीयमाना) एक सम क्षेत्रपर गति करती हुई तू, (नव्यसि) हे नूतन-दिन-रूप! (चक्रम इव आ ववृत्स्व) उनपर पहियेकी तरह घूम ।|3|।
अव स्यूमेव चिन्वती मघोन्युषा याति स्वसरस्य पत्नि । स्वर्जनन्ती सुभगा सुदंसा आन्ताद् दिव: पप्रथ आ पृथिव्या: ।।4।।
(मघोनी) अपने प्रचुर ऐश्वर्यसे परिपूर्ण (उषा:) उषा (स्यूभ अव चिन्वती इव) मानो सिये हुए चोगेको उतारती हुई, (स्वसरस्य पत्नी) आनन्दमयकी पत्नीके रूपमें (याति) विचरती है । (स्वर् जनन्ती) 'स्वः'को उत्पन्न करती हुई, (सुदंसा:) अपनी क्रियामें पूर्णतायुक्त, (सुभगा) अपने भोगोंमें पूर्णतायुक्त वह (आ दिव: अन्तात्) द्युलोकके छोरसे लेकर (आ पृथिव्या:) पृथिवीके किनारेतक (पप्रथे) विस्तृत होती है ।।4।।
अच्छा यो देयीमुषसं विभातीं प्र वो भरध्वं नमसा सुवृक्तिम् । उर्ध्व मधुधा दिवि थाजो अश्रेत् प्र रोचना रुरुचे रण्वसंदृक् ।।5।।
(व:) तुम (देवीम् उषसं) देवी उषाका (अच्छ) अच्छी तरह स्वागत करो, (विभातीम्) जब वह तुम्हारे प्रति विस्तृत रूपसे प्रकाशमान होती है । (व:) तुम (नमसा) उसके प्रति समर्पणके द्वारा (सुवृक्तिं) अपने पूर्ण बलको (प्रभरध्वं) बाहर निकालो । (मधुधा) मधुरताको स्थापित करती हुई वह, (ऊर्ध्व दिवि) ऊपर द्युलोकमें (पाज:) जो बल है उसका (अश्रेत्) आश्रय लेती है; वह (रोचना) प्रकाशमान लोकोंको (प्ररुरुचे) अच्छी तरह जगमगा देती है और (रण्वसंदृक्) परमानन्दका दृश्य उपस्थित करनेवाली है ।।5।।
ॠतावरी दिवो अर्कैरवोध्या रेवती रोदसी चित्रमस्थात् । आयतीमग्न उषसं विभातीं वाममेषि द्रविणं भिक्षमाण: ।।6।।
(दिव: अर्कै:) द्युलोकके प्रकाशनों द्वारा वह उषा (ऋतावरी) सत्यके धारण करनेवाली [के रूपमें] (आ अबोधि) अनुभवकी जाती है, देखी जाती है; और (रेवती) आनन्दपूर्ण होकर वह (रोदसी) द्यावापृथिवीमें (चित्रं) चित्रविचित्र प्रकाशसे युक्त (आ अस्थात्) आती है । (अग्ने) हे अग्नि! (विभातीमू आयतीम् उषसं) चमकती हुई आती उषासे (भिक्षमाण:) मांगता हुवा तू (वामं द्रविणम्) आनन्दके पदार्थको (एषि) पा लेता है ।।6।।
ॠतस्य बुध्न उषसामिषष्यन् वृषा मही. रोद्सी आ विवेश । मही मित्रस्य वरुणस्य माया चन्द्रेव भानुं वि दधे पुरुत्रा ।।7|| ३७८ ( ऋतस्य, उषसाम् बुध्ने) सत्यके आधारमें, उषाओंके आधारमें ( इषण्यन्) अपनी प्रेरणओंको प्रवर्तित करता हुआ ( वृषा) उनका स्वामी ( मही रोदसी) विशाल द्यावापृथिवीमें, द्यावापृथिवीकी विशालतामें ( आविवेश) प्रविष्ट होता है । ( मित्रस्य वरुणस्य मही माया) मित्रकी, वरुणकी महती प्रज्ञा ( चन्द्रा इव) मानो सुखपूर्ण प्रकाशसे युक्त होकर ( भानुं) ज्योतिको ( पुरुत्रा विदधे) नानाविध रूपसे व्यवस्थित करती है ।।7।।
भाष्य
सूर्य सविता अपना प्रकाश फैलानेका कार्य तभी करता है जब कि पहले उषाका उदय हो चुका होता है । एक अन्य सूक्तमें वर्णन किया गया है कि निरन्तर आनेवाली उषाओंकी प्रकाशमय शक्तिके द्वारा मनकी गतियाँ सचेतन और चमकीली होती गयीं । वेदमें सर्वत्र ही द्यौकी पुत्री उषाका यही व्यापार बतलाया गया है । अन्य देवताओंकी जागुतिकी, कार्यशीलताकी और वृद्धिकी यह माध्यम है; वैदिक सिद्धि प्राप्त करनेकी यह-उषाक़ा उदय-पहली शर्त है । इसके बढ़ते हुए प्रकाशको पाकर मनुष्यको सम्पूर्ण प्रकृति विशद, निर्मल हो जाती है; इसके द्वारा वह ( मनुष्य) सत्यको पहुँचता है, इसके द्वारा वह परम पद का उपभोग करता है । ऋषियों द्वारा वर्णित दिव्य उषाके उदयनका मतलब उस दिव्य प्रकाशका निकल आना है जो एकके बाद एक आवरणके पर्देको हटाता जाता और मनुष्यके क्रिया-कलापमे प्रकाशमय देवत्वको प्रकट करता जाता है । इसी प्रकाशमें कर्म किया जाता है, यज्ञ चलाया जाता है और इसके अभीष्ट फल मानव-जाति द्वारा प्राप्त किये जाते हैं ।
निस्सन्देह ऐसे सूक्त अनेक हैं जिनमें उषाके भौतिक रूपके उज्ज्वल, सुन्दर, सजीव वर्णन द्वारा उषा देवीका यह आन्तरिक सत्य छिप जाता है, पर महान् ऋषि विश्वामित्रके इस सूक्तमें वैदिक उषाकी आध्यात्मिक प्रतीकता प्रारम्भसे अन्ततक स्पष्ट दिखायी देती है, खुले तौरपर प्रकट की गयी है, विचारके ऊपरी तलपर विद्यमान है । वह उषासे कहता है, 'हे उष:, हे अपने सारतत्त्वके समृद्ध भण्डारवाली ! प्रचेता तू उसके स्तोमका सेवन कर जो तुझे अभिव्यक्त करता है, हे तू! जो विपुलतायुक्त है' । 'प्रचेता' यह शब्द तथा इससे सम्बन्ध रखनेवाला ' विचेता' शब्द, ये वैदिक भाषा-सरणिके पारिभाषिक शब्द हैं ; इनका आशय उन्हीं विचारोंके अनुरूप प्रतीत होता है जिन्हें आगे चलकर वैदान्तिक भाषामें 'प्रज्ञान और विज्ञान' शब्द द्वारा प्रकट किया गया है । प्रज्ञान वह चेतना है जो सब ३७९ वस्तुओंको अपने निरीक्षणके सम्मुख आनेवाले विषयोंके रूपमें जानती है; दिव्य मनके अंदर यह वस्तुओं-संबंधी वह ज्ञान हैं जो उनका स्रोत, उनका स्वामी और साक्षि-रूप होता है । विज्ञान वह ज्ञान है जो वस्तुओंके सत्यके साथ एक प्रकारकी एकताके स्थापन द्वारा चेतनामें उन्हें धारण करता है, उनके अंदर प्रविष्ट होता और उन्हें व्याप्त करता है । सो उषाको ज्ञानकी शक्तिके रूपमें ऋषिके प्रकाशकारक विचार तथा शब्दको व्याप्त करना है, सेवन करना है--ज्ञानकी एक ऐसी शक्तिके रूपमें कि मनुष्यमें अभिव्यक्तिके लिये विचार और शब्द द्वारा मनके सम्मुख जो कुछ भी रखा जाता है उसके सत्यको वह जानती है, उसकी प्रचेता है । यह ध्वनित किया गया है कि ऋषिका स्तोम, उष:स्तोत्र पूर्ण और विपुल होगा; क्योंकि उषा 'वाजेन वाजिनी' है, 'मधोनी' हैं, उसके सारतत्त्वका भंडार समृद्ध है, उसके पास सब प्रकारकी प्रचुरता और विपुलता है ।
यह उषा देवी अपने प्रगति-पथपर सदा एक दिव्य क्रियाके नियमके अनुसार चलती है । वे विचार बहुतसे हैं जिन्हें वह इस प्रगतिमें साथ लाती है; पर उसके पग जमकर पड़ते, हैं और सब वांछनीय वस्तुएँ, सब वर--आनंदके वर, दिव्य अस्तित्वके आशीर्वाद-उसके हाथोंमें हैं । यह पुरातन और सदातन है, उस प्रकाशकी उषा है जो आदिकालसे चला आ रहा है, अद्र: 'पुराणी' है, पर अपने आगमनमें वह सदा युवती है, सदा नई है, उस आत्माके लिये जो उसे ग्रहण करता है नित्य नई है । (देखो, मंत्र 1)
उसे चारों ओर चमक उठना है, उसे जो दिव्य उषा है, अमर अस्तित्वके प्रकाशके रूपमें, मनुष्यके अंदर सत्य और आनंदकी वाणियों या शक्तियोंको (सुनृता:) जगाते हुए चमक उठना है (सूनृता:--यह एक शब्द है जो सत्य और सुखमय इन दोनों भावोंको इकट्ठा प्रकट करता है); क्योंकि क्या उसकी गतिका रथ इकट्ठा प्रकाश और सुखका रथ नहीं है ? क्योंकि फिर, 'चंद्ररथा'में आया चंद्र शब्द (जिसका अर्थ चंद्रमाका देवता अर्थात् सोम भी होता है जो मनुष्यके अंदर बरसनेवाले अमृतके आनंदका--आनंद और अमृतका-अधिपति है) दोनों, प्रकाशमय और सुखमय, अर्थोको प्रकट करता है । और इसे लानेवाले घोड़े पूरी तरह नियंत्रित होने चाहियें--'घोड़े' यह रूपक है उन वातिक (स्थूल प्राणकी) शक्तियोंके लिये जो हमारी सब क्रियाओंको सहारा देती और आगे बढ़ाती हैं । सुनहले, चमकीले रंगवाले इन घोड़ोंका स्वभाव होना चाहिये अपनी संकेंद्रित प्रकाशमयतामें विद्यमान ज्ञानकी क्रियाशीलताका, उज्ज्वल ३८० ज्ञानक्रियाका,1 (क्योंकि इस प्राचीन प्रतीकवादमें रंग निदर्शक होता है गुणका, चरित्र एवं प्रकृतिका) और फिर उस संकेंद्रित शक्तिका यह पुंज होना चाहिये अपने फैलावमें विशाल या महान्-पृथुपाजसो ये । (देखो, मंत्र 2)
इस प्रकार दिव्य उषा अपने ज्ञानके प्रकाशके साथ, प्रज्ञानके साथ, आत्माके प्रति आती है, अपने उस ज्ञानके क्षेत्रभूत सब लोकोंके सम्मुख होकर अर्थात् हमारी विराट् सत्ताके सब प्रदेशोंके-मन, प्राण और भौतिक चेतनाके--सम्मुख होकर आती है । वह उनके ऊपर, मनसे ऊपरकी हमारी ऊँचाइयोंपर, उच्चतम लोकोंमें ऊर्ध्व होकर खड़ी होती है, उनके लिये अमरताका या अमृतमयका दर्शन बनकर, 'अमृतस्य केसुः' होकर, उनमें शाश्वतिक और परम सुखमय अवस्थाको या नित्य सनातन आनंदमय देवको प्रकट करती हुई खड़ी होती है । इस प्रकार, ऊँची वह खड़ी होती है दिव्य ज्ञानकी गतिको संपादित करनेके लिये तैयार होकर, बिल्कुल समतल भूमिपर बिना रगड़के चलनेवाले पहियेकी तरह वह उनकी (लोकोंकी) सामंजस्ययुक्त और समतायुक्त क्रियाओंमें सनातन सत्ताके एक नए-नए प्रकाशके रूपमें, नव्यसि, आगे-आगे बढ़ती हैं, क्योंकि वे लोक ( मन, प्राण और शरीरके लोक) अब, अपनी नानारूपता और बेसुरापन हट जानेके कारण, उस सम गतिमें कोई बाधा उपस्थित नहीं करते (देखो, मंत्र 3) ।
अपने प्रचुरैश्वर्यसे पूर्ण वह, मानो परिश्रमसे सीये गये उस चोगेको अपनेसे जुदा करती, अपने ऊपरसे उतार डालती है जिसने वस्तुओंके सत्यको ढक रखा है और प्रियतमकी पत्नी, 'स्वसरस्य पत्नीके, तौरपर अर्थात् अपने आनन्दस्वरूप पतिकी शक्तिके तौरपर वह विचरती है । अपने आनन्दोपभोगमे पूर्णतायुक्त, अपनी क्रियाओंके संपादन करनेमें पूर्णतायुक्त, 'सुभगा सुदंसा:' वह अपनी प्रकाशस्फुरणाओं द्वारा हमारे अंदर 'स्वः'को जनित करती है अर्थात् छिपे हुए प्रकाशमान मनको, हमारे उच्चतम मानसिक द्युलोकको उत्पन्न करती है, और इस प्रकार मानसिक सत्ताके दूरतम किनारोंसे अपने-आपको भौतिक चेतनाके ऊपर फैला देती है (देखो, मंत्र 4) ।
जैसे यह दिव्य उषा अपने प्रकाशको विस्तृत रूपमें मनुष्यके ऊपर डालती है वैसे मनुष्यको भी चाहिये कि वह उसके दिव्य क्रिया और गतिके _____________ 1. यहां पदपाठके अनुसार ' हिरण्यवर्णाम्' पद मानने पर यह सब वर्णन उषाक समझना चाहिये । वस्तुत: उषा ओर उसके अश्व-दोनोंका स्वमाव एक ही है, दोनोंकी ज्ञानीक्रिया उज्ज्वल है ।--अनुवादक ३८१ नियमके प्रति समर्पण करके उसके लिये अपनी सत्ताकी और अपनी सामर्थ्यकी पूरी तरह शक्तियुक्त हुई पूर्णताको बाहर ले आवे, प्रकट. करे, जिससे कि वह उसके प्रकाशका वाहन बन सकें अथवा उसकी यज्ञक्रियाओंका एक स्थान बन सके (देखो, मंत्र 5 का पूर्वार्ध) ।
इसके बाद ऋषि मनुष्यके अंदर दिव्य उषाके जो दो मुख्य कार्य हैं उनका विस्तारसे वर्णन करता है । पहला कार्य है, उषा मनुष्यको प्रकाशकी पूरी शक्तितक ऊपर उठाती है और उसे सत्यका साक्षात्कार कराती है; दूसरा है, वह मनुष्यकी मानसिक और शारीरिक सत्तामें आनंद की, अमृतकी, सोमरसकी, अमर अस्तित्वके आनंदकी वर्षा करती है । ''दिवि'' अर्थात् शुद्ध मनके लोकमें यह प्रकाशकी पूरी शक्ति और मात्रामें ऊपर उठती है--उर्ध्व पाजो अश्रेत्, और उन शुद्ध और उच्च स्तरोंसे वह यहाँ मधुरताको, 'मधुको', सोमके मधुको स्थापित करती है । तीन प्रकाशमान लोकों-'रोचना'-को वह अच्छी तरह चमका देती है; तब वह परमा-नन्दका दृश्य बन जाती है या इस दृश्यको उपस्थित करनेवाली होती है (देखो, मंत्र ५ का उत्तरार्ध) । शुद्ध मानस सत्ताके कार्यसाधक प्रकाशोंसे, सिद्धिदायक मंत्रों द्वारा, 'दिवो अर्कै:' वह सत्यके धारण करनेवालीके रूपमें दिखायी देती हैं और इस सत्यके साथ, मनसे ऊपरके लोकसे आकर, आनन्दसे परिपूर्ण वह अपने विविध विचार ओर क्रियाकी चित्र-विचित्र क्रीड़ा करती हुई मानसिक और शारीरिक चेतनामें (रोदसी) प्रविष्ट होती है-मानसिक और शारीरिक चेतना वे दो बद्धमूल सीमाएँ हैं जिनके बीचमें मनुष्यका कर्म गति करता है-जब यह उषा इस प्रकार समृद्धिशालिनी (वाजिन वाजिनी) होकर वहाँ से आती हैं तब इसीसे अग्नि (वह दिव्य शक्ति जो मर्त्यको ऊपर उठानेके लिये यहाँ शरीरमें और मनमें काम कर रही है) उस सोमको पानेकी प्रार्थना करता है और उसे पा लेता है-- जो परमानंदका पान है, आनंदमय सारपदार्थ है (देखो, मंत्र 6) ।
हमारे अंदर जो अतिमानस (विज्ञानमय) लोक है, जो सत्यका आधार है वही उषाओंका भी आधार है । ये उषाएँ मर्त्य प्रकृतिके अंदर उस अमर्त्य सत्यके प्रकाशका, 'ॠत्तम् ज्योति:'का अवतरण ही हैं । इन उषाओंका अधिपति सत्यका स्वामी, प्रकाशक, उत्पादक, व्यवस्थापक परमदेव मनोऽतीत सत्यके आधारमें अपनी क्रियाओंकी प्रेरणाको प्रवर्तित करता हुआ, उनके साय इस उषा देवीके द्वारा मानसिक और शारीरिक सत्तामें प्रविष्ट होता है जो मानसिक और शारीरिक सत्ताएँ अब अंधकाराच्छन्न नहीं रहो हैं, वरन् अपने सीमाबंघनोंसे मुक्त तथा विशालताको धारण करने ३८२ योग्य हो गयी हैं 'मही रोदसी' । सत्यका अधिपति वस्तुओंका एकमात्र अधिपति है । वह है वरुण, विशालता और पवित्रताकी आत्मा । वह है मित्र, प्रेम, प्रकाश और सामंजस्यका स्रोत । उसकी सर्जन करनेवाली प्रज्ञा-मही मित्रस्य वरुणस्य माया-जो अपने क्षेत्रमें अमर्यादित है (क्योंकि वह वरुण है), जो आनंद और हर्षकी ज्योतिकी तरह (चंद्रेव) प्रतीत होती है (क्योंकि वह मित्र है), सत्यकी गंभीर अभिव्यक्तियोंको, प्रकाशमय अभिव्यक्तियोंको, नानाविध रूपोंमें, मुक्त हुई प्रकृतिकी विशालतामें, व्यवस्थित करती है, पूर्णतया संघटित करती है । वह उन विविध ज्योतियोंको जिनके साथ उसकी उषा हमारे द्यावापृथिवी (मन, शरीर) मे प्रविष्ट हुई है एकत्रित कर देता है, संयुक्त कर देता है, वह उस (उषा) की सच्ची और सुखकर वाणियोंको एक समस्वरतामें मिला देता, सामंजस्ययुक्त कर देता है (देखो, मंत्र 7) ।
दिव्य उषा परमदेवका आगमन है । वह हैं सत्य और परमसुखकी ज्योति जो हमपर ज्ञान और आनंदके अधिपतिकी तरफसे बरस रही है--अमृतस्य केतुः, स्वसरस्य पत्नी । ३८३
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